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"दलाई लामा ने अपनी संवेदना और प्रार्थना व्यक्त की और कलाम की मौत को "एक अपूरणीय क्षति" बुला, अपना दुख व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा, "अनेक वर्षों में, मुझे कई अवसरों पर कलाम के साथ बातचीत करने का मौका मिला। वह एक महान वैज्ञानिक, शिक्षाविद और राजनेता ही नहीं, बल्कि वे एक वास्तविक सज्जन थे, और हमेशा मैंने उनकी सादगी और विनम्रता की प्रशंसा की है। मैंने सामान्य हितों के विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर हमारी चर्चाओं का आनंद लिया, लेकिन विज्ञान, अध्यात्म और शिक्षा के साथ मुख्य रूप से हमारे बीच चिंतन किया जाता था। " दक्षिण एशियाई नेताओं ने अपनी संवेदना व्यक्त की और दिवंगत राजनेता की सराहना की। भूटान सरकार ने कलाम की मौत के शोक के लिए देश के झंडे को आधी ऊंचाई पर फहराने के लिए आदेश दिया, और श्रद्धांजलि में 1000 मक्खन के दीपक की भेंट किए। भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने कलाम के प्रति अपना गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा, "वे एक महान नेता थे जिनकी सभी ने प्रशंसा की विशेषकर भारत के युवाओं के वे प्रशंसनीय नेता थे जिन्हें वे जनता का राष्ट्रपति बुलाते थे। "बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी व्याख्या करते हुए कहा, "एक महान राजनेता प्रशंसित वैज्ञानिक और दक्षिण एशिया के युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत के संयोग" उन्होंने कलाम की मृत्यु को "भारत के लिए अपूरणीय क्षति से भी परे बताया। " उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सबसे प्रसिद्ध बेटे, पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर हमें गहरा झटका लगा है। ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम अपने समय के सबसे महान ज्ञानियों में से एक थे। वह बांग्लादेश में भी बहुत सम्मानित थे। उनकी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की वृद्धि करने के लिए अमूल्य योगदान के लिए वे सभी के द्वारा हमेशा याद किये जायेंगे। वे दक्षिण एशिया की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत थे जो उनके सपनों को पंख देते थे। " बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की प्रमुख खालिदा जिया ने कहा, "एक परमाणु वैज्ञानिक के रूप में, उन्होंने लोगों के कल्याण में स्वयं को समर्पित किया। "अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी, ने कलाम को, "लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणादायक शख्सियत बताया" ये नोट करते हुए "हमे अपने जीवन से बहुत कुछ सीखना है। " नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने भारत के लिए कलाम के वैज्ञानिक योगदानों को याद किया। "नेपाल ने एक अच्छा दोस्त खो दिया है और मैंने एक सम्मानित और आदर्श व्यक्तित्व को खो दिया है। "पाकिस्तान के राष्ट्रपति, ममनून हुसैन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर उनके प्रति दु: ख, शोक व संवेदना व्यक्त की। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने कहा, "कलाम दृढ़ विश्वास और अदम्य भावना के आदमी थे। मैंने उन्हें दुनिया के एक उत्कृष्ट राजनेता के रूप में देखा था। उनकी मौत भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है। "इंडोनेशियाई राष्ट्रपति सुसीलो बम्बनग युधोयोनो, मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक, सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग , संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायद अल नहयान सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय नेताओं,, और संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और दुबई के शासक ने भी कलाम को श्रद्धांजलि अर्पित की। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत सरकार, भारत के सभी लोगों के लिए और मृतक नेता ले प्रियजनों के लिए अपनी गंभीर संवेदना व्यक्त की और अपनी सहानुभूति और समर्थन से अवगत कराते हुए कहा, "कलाम को हमारे देशों के बीच लगातार मैत्रीपूर्ण संबंधों के एक प्रतिपादक के रूप में याद किया जाएगा, उन्होंने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए व्यक्तिगत योगदान दिया। उन्होंने पारस्परिक रूप से लाभप्रद रूसी-भारतीय सहयोग जोड़ने के लिए बहुत कुछ किया। "संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा," अमेरिकी लोगों की ओर से, मैं पूर्व भारतीय राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम के निधन पर भारत के लोगों के लिए अपनी गहरी संवेदना का विस्तार करना चाहता हूँ। एक वैज्ञानिक और राजनेता, कलाम ने अपनी विनम्रता से घर में और विदेशों में सम्मान कमाया और भारत के सबसे महान नेताओं में से एक बने। भारत-अमेरिका के मजबूत संबंधों के लिए, डा कलाम ने सदा वकालत की। 1962 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के दौरान नासा के साथ अंतरिक्ष सहयोग को गहरा करने के लिए काम किया।
"नेपाल ने एक अच्छा दोस्त खो दिया है" यह बात किसने कही थी?
नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला
"दलाई लामा ने अपनी संवेदना और प्रार्थना व्यक्त की और कलाम की मौत को "एक अपूरणीय क्षति" बुला, अपना दुख व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा, "अनेक वर्षों में, मुझे कई अवसरों पर कलाम के साथ बातचीत करने का मौका मिला। वह एक महान वैज्ञानिक, शिक्षाविद और राजनेता ही नहीं, बल्कि वे एक वास्तविक सज्जन थे, और हमेशा मैंने उनकी सादगी और विनम्रता की प्रशंसा की है। मैंने सामान्य हितों के विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर हमारी चर्चाओं का आनंद लिया, लेकिन विज्ञान, अध्यात्म और शिक्षा के साथ मुख्य रूप से हमारे बीच चिंतन किया जाता था। " दक्षिण एशियाई नेताओं ने अपनी संवेदना व्यक्त की और दिवंगत राजनेता की सराहना की। भूटान सरकार ने कलाम की मौत के शोक के लिए देश के झंडे को आधी ऊंचाई पर फहराने के लिए आदेश दिया, और श्रद्धांजलि में 1000 मक्खन के दीपक की भेंट किए। भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने कलाम के प्रति अपना गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा, "वे एक महान नेता थे जिनकी सभी ने प्रशंसा की विशेषकर भारत के युवाओं के वे प्रशंसनीय नेता थे जिन्हें वे जनता का राष्ट्रपति बुलाते थे। "बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी व्याख्या करते हुए कहा, "एक महान राजनेता प्रशंसित वैज्ञानिक और दक्षिण एशिया के युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत के संयोग" उन्होंने कलाम की मृत्यु को "भारत के लिए अपूरणीय क्षति से भी परे बताया। " उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सबसे प्रसिद्ध बेटे, पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर हमें गहरा झटका लगा है। ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम अपने समय के सबसे महान ज्ञानियों में से एक थे। वह बांग्लादेश में भी बहुत सम्मानित थे। उनकी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की वृद्धि करने के लिए अमूल्य योगदान के लिए वे सभी के द्वारा हमेशा याद किये जायेंगे। वे दक्षिण एशिया की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत थे जो उनके सपनों को पंख देते थे। " बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की प्रमुख खालिदा जिया ने कहा, "एक परमाणु वैज्ञानिक के रूप में, उन्होंने लोगों के कल्याण में स्वयं को समर्पित किया। "अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी, ने कलाम को, "लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणादायक शख्सियत बताया" ये नोट करते हुए "हमे अपने जीवन से बहुत कुछ सीखना है। " नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने भारत के लिए कलाम के वैज्ञानिक योगदानों को याद किया। "नेपाल ने एक अच्छा दोस्त खो दिया है और मैंने एक सम्मानित और आदर्श व्यक्तित्व को खो दिया है। "पाकिस्तान के राष्ट्रपति, ममनून हुसैन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर उनके प्रति दु: ख, शोक व संवेदना व्यक्त की। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने कहा, "कलाम दृढ़ विश्वास और अदम्य भावना के आदमी थे। मैंने उन्हें दुनिया के एक उत्कृष्ट राजनेता के रूप में देखा था। उनकी मौत भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है। "इंडोनेशियाई राष्ट्रपति सुसीलो बम्बनग युधोयोनो, मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक, सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग , संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायद अल नहयान सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय नेताओं,, और संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और दुबई के शासक ने भी कलाम को श्रद्धांजलि अर्पित की। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत सरकार, भारत के सभी लोगों के लिए और मृतक नेता ले प्रियजनों के लिए अपनी गंभीर संवेदना व्यक्त की और अपनी सहानुभूति और समर्थन से अवगत कराते हुए कहा, "कलाम को हमारे देशों के बीच लगातार मैत्रीपूर्ण संबंधों के एक प्रतिपादक के रूप में याद किया जाएगा, उन्होंने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए व्यक्तिगत योगदान दिया। उन्होंने पारस्परिक रूप से लाभप्रद रूसी-भारतीय सहयोग जोड़ने के लिए बहुत कुछ किया। "संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा," अमेरिकी लोगों की ओर से, मैं पूर्व भारतीय राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम के निधन पर भारत के लोगों के लिए अपनी गहरी संवेदना का विस्तार करना चाहता हूँ। एक वैज्ञानिक और राजनेता, कलाम ने अपनी विनम्रता से घर में और विदेशों में सम्मान कमाया और भारत के सबसे महान नेताओं में से एक बने। भारत-अमेरिका के मजबूत संबंधों के लिए, डा कलाम ने सदा वकालत की। 1962 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के दौरान नासा के साथ अंतरिक्ष सहयोग को गहरा करने के लिए काम किया।
कलाम की मृत्यु पर शोक व्यक्त करते हुए किस सरकार ने श्रद्धांजलि में 1000 मक्खन के दीपक भेंट किए थे?
भूटान सरकार
"दलाई लामा ने अपनी संवेदना और प्रार्थना व्यक्त की और कलाम की मौत को "एक अपूरणीय क्षति" बुला, अपना दुख व्यक्त किया। उन्होंने यह भी कहा, "अनेक वर्षों में, मुझे कई अवसरों पर कलाम के साथ बातचीत करने का मौका मिला। वह एक महान वैज्ञानिक, शिक्षाविद और राजनेता ही नहीं, बल्कि वे एक वास्तविक सज्जन थे, और हमेशा मैंने उनकी सादगी और विनम्रता की प्रशंसा की है। मैंने सामान्य हितों के विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला पर हमारी चर्चाओं का आनंद लिया, लेकिन विज्ञान, अध्यात्म और शिक्षा के साथ मुख्य रूप से हमारे बीच चिंतन किया जाता था। " दक्षिण एशियाई नेताओं ने अपनी संवेदना व्यक्त की और दिवंगत राजनेता की सराहना की। भूटान सरकार ने कलाम की मौत के शोक के लिए देश के झंडे को आधी ऊंचाई पर फहराने के लिए आदेश दिया, और श्रद्धांजलि में 1000 मक्खन के दीपक की भेंट किए। भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग तोबगे ने कलाम के प्रति अपना गहरा दुख व्यक्त करते हुए कहा, "वे एक महान नेता थे जिनकी सभी ने प्रशंसा की विशेषकर भारत के युवाओं के वे प्रशंसनीय नेता थे जिन्हें वे जनता का राष्ट्रपति बुलाते थे। "बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी व्याख्या करते हुए कहा, "एक महान राजनेता प्रशंसित वैज्ञानिक और दक्षिण एशिया के युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत के संयोग" उन्होंने कलाम की मृत्यु को "भारत के लिए अपूरणीय क्षति से भी परे बताया। " उन्होंने यह भी कहा कि भारत के सबसे प्रसिद्ध बेटे, पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर हमें गहरा झटका लगा है। ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम अपने समय के सबसे महान ज्ञानियों में से एक थे। वह बांग्लादेश में भी बहुत सम्मानित थे। उनकी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की वृद्धि करने के लिए अमूल्य योगदान के लिए वे सभी के द्वारा हमेशा याद किये जायेंगे। वे दक्षिण एशिया की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत थे जो उनके सपनों को पंख देते थे। " बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की प्रमुख खालिदा जिया ने कहा, "एक परमाणु वैज्ञानिक के रूप में, उन्होंने लोगों के कल्याण में स्वयं को समर्पित किया। "अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी, ने कलाम को, "लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणादायक शख्सियत बताया" ये नोट करते हुए "हमे अपने जीवन से बहुत कुछ सीखना है। " नेपाली प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने भारत के लिए कलाम के वैज्ञानिक योगदानों को याद किया। "नेपाल ने एक अच्छा दोस्त खो दिया है और मैंने एक सम्मानित और आदर्श व्यक्तित्व को खो दिया है। "पाकिस्तान के राष्ट्रपति, ममनून हुसैन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर उनके प्रति दु: ख, शोक व संवेदना व्यक्त की। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने कहा, "कलाम दृढ़ विश्वास और अदम्य भावना के आदमी थे। मैंने उन्हें दुनिया के एक उत्कृष्ट राजनेता के रूप में देखा था। उनकी मौत भारत के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है। "इंडोनेशियाई राष्ट्रपति सुसीलो बम्बनग युधोयोनो, मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक, सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सियन लूंग , संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायद अल नहयान सहित अन्य अंतरराष्ट्रीय नेताओं,, और संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री और दुबई के शासक ने भी कलाम को श्रद्धांजलि अर्पित की। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भारत सरकार, भारत के सभी लोगों के लिए और मृतक नेता ले प्रियजनों के लिए अपनी गंभीर संवेदना व्यक्त की और अपनी सहानुभूति और समर्थन से अवगत कराते हुए कहा, "कलाम को हमारे देशों के बीच लगातार मैत्रीपूर्ण संबंधों के एक प्रतिपादक के रूप में याद किया जाएगा, उन्होंने भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने में सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के लिए व्यक्तिगत योगदान दिया। उन्होंने पारस्परिक रूप से लाभप्रद रूसी-भारतीय सहयोग जोड़ने के लिए बहुत कुछ किया। "संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा," अमेरिकी लोगों की ओर से, मैं पूर्व भारतीय राष्ट्रपति ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम के निधन पर भारत के लोगों के लिए अपनी गहरी संवेदना का विस्तार करना चाहता हूँ। एक वैज्ञानिक और राजनेता, कलाम ने अपनी विनम्रता से घर में और विदेशों में सम्मान कमाया और भारत के सबसे महान नेताओं में से एक बने। भारत-अमेरिका के मजबूत संबंधों के लिए, डा कलाम ने सदा वकालत की। 1962 में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के दौरान नासा के साथ अंतरिक्ष सहयोग को गहरा करने के लिए काम किया।
जब ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की मृत्यु हुई थी उस समय श्रीलंका के राष्ट्रपति कौन थे ?
मैत्रिपाला सिरिसेना
(धोंडू पन्त) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। जनवरी 28 सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अन्तिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कम्पनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन सम्पत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बन्ध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परन्तु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी समृपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरन्त ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुन्धूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किन्तु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया। नानाराव धून्धूपन्त को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारम्भ की।
नाना साहब के पिता कौन थे ?
माधवनारायण राव
(धोंडू पन्त) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। जनवरी 28 सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अन्तिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कम्पनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन सम्पत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बन्ध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परन्तु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी समृपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरन्त ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुन्धूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किन्तु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया। नानाराव धून्धूपन्त को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारम्भ की।
बाजीराव द्वितीय की मृत्यु कब हुई थी ?
जनवरी 28 सन् 1851
(धोंडू पन्त) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। जनवरी 28 सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अन्तिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कम्पनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन सम्पत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बन्ध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परन्तु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी समृपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरन्त ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुन्धूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किन्तु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया। नानाराव धून्धूपन्त को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारम्भ की।
बाजीराव द्वितीय के बाद पेशवा की उपाधि किसने संभाली थी ?
नानाराव
(धोंडू पन्त) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। जनवरी 28 सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अन्तिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कम्पनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन सम्पत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बन्ध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परन्तु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी समृपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरन्त ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुन्धूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किन्तु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया। नानाराव धून्धूपन्त को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारम्भ की।
नाना साहब का जन्म किस वर्ष हुआ था ?
1824
01 दिसम्बर 2013 - 31 नवंबर- 1 दिसंबर की मध्यरात्रि को 00:49 बजे मंगलयान को मार्स ट्रांसफर ट्रेजेक्‍टरी में प्रविष्‍ट करा दिया गया, इस प्रक्रिया को ट्रांस मार्स इंजेक्शन (टीएमआई) ऑपरेशन का नाम दिया गया। यह इसकी 20 करोड़ किलोमीटर से ज्यादा लम्बी यात्रा शुरूआत थी जिसमें नौ महीने से भी ज्यादा का समय लगना था और वैज्ञानिकों के समने सबसे बड़ी चुनौती इसके अन्तिम चरण में यान को बिल्कुल सटीक तौर पर धीमा करने की थी ताकि मंगल ग्रह अपने छोटे गुरुत्व बल के जरिये इसे अपने उपग्रह के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो जाये। ,इसरो प्रमुख डॉ० के राधाकृष्णन ने कहा कि मंगल अभियान की परीक्षा में हम पास हुए या फेल, यह 24 सितम्बर को ही पता चलेगा। 4 दिसंबर 2013: मंगलयान 9.25 लाख किलोमीटर के दायरे वाले पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकला। 11 दिसंबर 2013 : पहली दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 11 जून 2014 : दूसरी दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 14 सितंबर 2014 : अंतिम चरण के लिए आवश्यक कमांड्स अपलोड की गई। 22 सितंबर 2014 : एमओएम ने मंगल के गुरुत्वीय क्षेत्र में प्रवेश किया। लगभग 300 दिन की संपूर्ण यात्रा के दौरान सुषुप्ति में पड़े रहने के बाद मंगलयान के मुख्य इंजन 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर को 4 सेकंड्स तक चलाकर अंतिम परीक्षण एवं अंतिम पथ संशोधन कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया गया। 24 सितम्बर 2014 : सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर (एलएएम) यान को मंगल की कक्षा में प्रवेश कराने वाले थ्रस्टर्स के साथ सक्रिय की गई जिससे यान की गति को 22.1 किमी प्रति सेकंड से घटा कर 4.4 किमी प्रति सेकंड करके मंगलयान को मंगल ग्रह की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रविष्ट किया गया। यह कार्य संपन्न होते ही सभी वैज्ञानिक खुशी से झूम उठे।
एमओएम ने मंगल के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश कब किया था?
22 सितंबर 2014
01 दिसम्बर 2013 - 31 नवंबर- 1 दिसंबर की मध्यरात्रि को 00:49 बजे मंगलयान को मार्स ट्रांसफर ट्रेजेक्‍टरी में प्रविष्‍ट करा दिया गया, इस प्रक्रिया को ट्रांस मार्स इंजेक्शन (टीएमआई) ऑपरेशन का नाम दिया गया। यह इसकी 20 करोड़ किलोमीटर से ज्यादा लम्बी यात्रा शुरूआत थी जिसमें नौ महीने से भी ज्यादा का समय लगना था और वैज्ञानिकों के समने सबसे बड़ी चुनौती इसके अन्तिम चरण में यान को बिल्कुल सटीक तौर पर धीमा करने की थी ताकि मंगल ग्रह अपने छोटे गुरुत्व बल के जरिये इसे अपने उपग्रह के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो जाये। ,इसरो प्रमुख डॉ० के राधाकृष्णन ने कहा कि मंगल अभियान की परीक्षा में हम पास हुए या फेल, यह 24 सितम्बर को ही पता चलेगा। 4 दिसंबर 2013: मंगलयान 9.25 लाख किलोमीटर के दायरे वाले पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकला। 11 दिसंबर 2013 : पहली दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 11 जून 2014 : दूसरी दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 14 सितंबर 2014 : अंतिम चरण के लिए आवश्यक कमांड्स अपलोड की गई। 22 सितंबर 2014 : एमओएम ने मंगल के गुरुत्वीय क्षेत्र में प्रवेश किया। लगभग 300 दिन की संपूर्ण यात्रा के दौरान सुषुप्ति में पड़े रहने के बाद मंगलयान के मुख्य इंजन 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर को 4 सेकंड्स तक चलाकर अंतिम परीक्षण एवं अंतिम पथ संशोधन कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया गया। 24 सितम्बर 2014 : सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर (एलएएम) यान को मंगल की कक्षा में प्रवेश कराने वाले थ्रस्टर्स के साथ सक्रिय की गई जिससे यान की गति को 22.1 किमी प्रति सेकंड से घटा कर 4.4 किमी प्रति सेकंड करके मंगलयान को मंगल ग्रह की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रविष्ट किया गया। यह कार्य संपन्न होते ही सभी वैज्ञानिक खुशी से झूम उठे।
मंगलयान को कितने बजे मार्स ट्रांसफर ट्रैजेक्टरी में इंजेक्ट किया गया था?
00:49 बजे
01 दिसम्बर 2013 - 31 नवंबर- 1 दिसंबर की मध्यरात्रि को 00:49 बजे मंगलयान को मार्स ट्रांसफर ट्रेजेक्‍टरी में प्रविष्‍ट करा दिया गया, इस प्रक्रिया को ट्रांस मार्स इंजेक्शन (टीएमआई) ऑपरेशन का नाम दिया गया। यह इसकी 20 करोड़ किलोमीटर से ज्यादा लम्बी यात्रा शुरूआत थी जिसमें नौ महीने से भी ज्यादा का समय लगना था और वैज्ञानिकों के समने सबसे बड़ी चुनौती इसके अन्तिम चरण में यान को बिल्कुल सटीक तौर पर धीमा करने की थी ताकि मंगल ग्रह अपने छोटे गुरुत्व बल के जरिये इसे अपने उपग्रह के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो जाये। ,इसरो प्रमुख डॉ० के राधाकृष्णन ने कहा कि मंगल अभियान की परीक्षा में हम पास हुए या फेल, यह 24 सितम्बर को ही पता चलेगा। 4 दिसंबर 2013: मंगलयान 9.25 लाख किलोमीटर के दायरे वाले पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकला। 11 दिसंबर 2013 : पहली दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 11 जून 2014 : दूसरी दिशा संशोधन प्रक्रिया संपन्न। 14 सितंबर 2014 : अंतिम चरण के लिए आवश्यक कमांड्स अपलोड की गई। 22 सितंबर 2014 : एमओएम ने मंगल के गुरुत्वीय क्षेत्र में प्रवेश किया। लगभग 300 दिन की संपूर्ण यात्रा के दौरान सुषुप्ति में पड़े रहने के बाद मंगलयान के मुख्य इंजन 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर को 4 सेकंड्स तक चलाकर अंतिम परीक्षण एवं अंतिम पथ संशोधन कार्य सफलतापूर्वक पूरा किया गया। 24 सितम्बर 2014 : सुबह 7 बज कर 17 मिनट पर 440 न्यूटन लिक्विड एपोजी मोटर (एलएएम) यान को मंगल की कक्षा में प्रवेश कराने वाले थ्रस्टर्स के साथ सक्रिय की गई जिससे यान की गति को 22.1 किमी प्रति सेकंड से घटा कर 4.4 किमी प्रति सेकंड करके मंगलयान को मंगल ग्रह की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रविष्ट किया गया। यह कार्य संपन्न होते ही सभी वैज्ञानिक खुशी से झूम उठे।
मंगलयान को सफलतापूर्वक मंगल की कक्षा में इंजेक्ट कब कर दिया गया था?
1 दिसंबर
1 और 2 शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत के चेरस, चोल और पांडिओं के रोमन मिस्र और तमिल राज्यों के बीच विकसित गहन व्यापार संबंध थे। ऊपर इंडोनेशियाई लोगों की तरह, पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए मानसून का इस्तेमाल किया एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस के अज्ञात लेखक इस मार्ग का वर्णन करता है, साथ ही साथ वस्तुओं के अफ्रीका और भारत लगभग 1 सीई के किनारे पर विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ व्यापार किया गया था। इन व्यापारिक बस्तियों में लाल सागर तट पर मोसीलोन और ओपन थे। प्रशांत महासागर के विपरीत जहां पॉलिनेशिया की सभ्यता दूर-दूर तक द्वीपों और एटोल पर पहुंच गई थी और उनसे आबादी हुई थी, औपनिवेशिक काल तक लगभग सभी द्वीपों, आर्चिपेलॅगो और हिंद महासागर के एंटोल्स निर्जन थे। यद्यपि एशिया के तटीय राज्यों और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कई प्राचीन सभ्यताएं थीं, लेकिन मालदीव केंद्रीय भारतीय महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप समूह थे जहां एक प्राचीन सभ्यता विकसित हुई थी। मालदीव के जहाजों ने पास के तटों की यात्रा करने के लिए भारतीय मॉनसून चालू का इस्तेमाल किया। 1405 से 1433 तक एडमिरल झेंग ने हिंद महासागर के माध्यम से कई खजाने यात्राओं पर अंततः अंततः पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों तक पहुंचने वाले मिंग राजवंश के बड़े बेड़े का नेतृत्व किया। 1497 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप को गोल कर दिया और भारत के लिए पाल करने वाले पहले यूरोपीय और बाद में सुदूर पूर्व बन गए। यूरोपीय जहाजों, भारी तोप से सशस्त्र, जल्दी व्यापार पर हावी। पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य और बंदरगाहों पर किलों की स्थापना के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त की। अफ्रीका और एशिया के तट के साथ उनकी आधिकारिकता 17 वीं सदी के मध्य तक चली। बाद में, पुर्तगाली को अन्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा चुनौती दी गई थी डच ईस्ट इंडिया कंपनी (1602-1798) ने हिंद महासागर के पार ईस्ट के साथ व्यापार पर नियंत्रण की मांग की। फ्रांस और ब्रिटेन ने क्षेत्र के लिए व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की।
पुर्तगाली नाविक वास्को डी गामा ने केप का स्कोर किस वर्ष बनाया था ?
1497
1 और 2 शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत के चेरस, चोल और पांडिओं के रोमन मिस्र और तमिल राज्यों के बीच विकसित गहन व्यापार संबंध थे। ऊपर इंडोनेशियाई लोगों की तरह, पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए मानसून का इस्तेमाल किया एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस के अज्ञात लेखक इस मार्ग का वर्णन करता है, साथ ही साथ वस्तुओं के अफ्रीका और भारत लगभग 1 सीई के किनारे पर विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ व्यापार किया गया था। इन व्यापारिक बस्तियों में लाल सागर तट पर मोसीलोन और ओपन थे। प्रशांत महासागर के विपरीत जहां पॉलिनेशिया की सभ्यता दूर-दूर तक द्वीपों और एटोल पर पहुंच गई थी और उनसे आबादी हुई थी, औपनिवेशिक काल तक लगभग सभी द्वीपों, आर्चिपेलॅगो और हिंद महासागर के एंटोल्स निर्जन थे। यद्यपि एशिया के तटीय राज्यों और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कई प्राचीन सभ्यताएं थीं, लेकिन मालदीव केंद्रीय भारतीय महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप समूह थे जहां एक प्राचीन सभ्यता विकसित हुई थी। मालदीव के जहाजों ने पास के तटों की यात्रा करने के लिए भारतीय मॉनसून चालू का इस्तेमाल किया। 1405 से 1433 तक एडमिरल झेंग ने हिंद महासागर के माध्यम से कई खजाने यात्राओं पर अंततः अंततः पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों तक पहुंचने वाले मिंग राजवंश के बड़े बेड़े का नेतृत्व किया। 1497 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप को गोल कर दिया और भारत के लिए पाल करने वाले पहले यूरोपीय और बाद में सुदूर पूर्व बन गए। यूरोपीय जहाजों, भारी तोप से सशस्त्र, जल्दी व्यापार पर हावी। पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य और बंदरगाहों पर किलों की स्थापना के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त की। अफ्रीका और एशिया के तट के साथ उनकी आधिकारिकता 17 वीं सदी के मध्य तक चली। बाद में, पुर्तगाली को अन्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा चुनौती दी गई थी डच ईस्ट इंडिया कंपनी (1602-1798) ने हिंद महासागर के पार ईस्ट के साथ व्यापार पर नियंत्रण की मांग की। फ्रांस और ब्रिटेन ने क्षेत्र के लिए व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की।
पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए किसका का इस्तेमाल किया था ?
मानसून
1 और 2 शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत के चेरस, चोल और पांडिओं के रोमन मिस्र और तमिल राज्यों के बीच विकसित गहन व्यापार संबंध थे। ऊपर इंडोनेशियाई लोगों की तरह, पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए मानसून का इस्तेमाल किया एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस के अज्ञात लेखक इस मार्ग का वर्णन करता है, साथ ही साथ वस्तुओं के अफ्रीका और भारत लगभग 1 सीई के किनारे पर विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ व्यापार किया गया था। इन व्यापारिक बस्तियों में लाल सागर तट पर मोसीलोन और ओपन थे। प्रशांत महासागर के विपरीत जहां पॉलिनेशिया की सभ्यता दूर-दूर तक द्वीपों और एटोल पर पहुंच गई थी और उनसे आबादी हुई थी, औपनिवेशिक काल तक लगभग सभी द्वीपों, आर्चिपेलॅगो और हिंद महासागर के एंटोल्स निर्जन थे। यद्यपि एशिया के तटीय राज्यों और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कई प्राचीन सभ्यताएं थीं, लेकिन मालदीव केंद्रीय भारतीय महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप समूह थे जहां एक प्राचीन सभ्यता विकसित हुई थी। मालदीव के जहाजों ने पास के तटों की यात्रा करने के लिए भारतीय मॉनसून चालू का इस्तेमाल किया। 1405 से 1433 तक एडमिरल झेंग ने हिंद महासागर के माध्यम से कई खजाने यात्राओं पर अंततः अंततः पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों तक पहुंचने वाले मिंग राजवंश के बड़े बेड़े का नेतृत्व किया। 1497 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप को गोल कर दिया और भारत के लिए पाल करने वाले पहले यूरोपीय और बाद में सुदूर पूर्व बन गए। यूरोपीय जहाजों, भारी तोप से सशस्त्र, जल्दी व्यापार पर हावी। पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य और बंदरगाहों पर किलों की स्थापना के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त की। अफ्रीका और एशिया के तट के साथ उनकी आधिकारिकता 17 वीं सदी के मध्य तक चली। बाद में, पुर्तगाली को अन्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा चुनौती दी गई थी डच ईस्ट इंडिया कंपनी (1602-1798) ने हिंद महासागर के पार ईस्ट के साथ व्यापार पर नियंत्रण की मांग की। फ्रांस और ब्रिटेन ने क्षेत्र के लिए व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की।
मध्य हिंद महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप का नाम क्या था ?
मालदीव
1 और 2 शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत के चेरस, चोल और पांडिओं के रोमन मिस्र और तमिल राज्यों के बीच विकसित गहन व्यापार संबंध थे। ऊपर इंडोनेशियाई लोगों की तरह, पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए मानसून का इस्तेमाल किया एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस के अज्ञात लेखक इस मार्ग का वर्णन करता है, साथ ही साथ वस्तुओं के अफ्रीका और भारत लगभग 1 सीई के किनारे पर विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ व्यापार किया गया था। इन व्यापारिक बस्तियों में लाल सागर तट पर मोसीलोन और ओपन थे। प्रशांत महासागर के विपरीत जहां पॉलिनेशिया की सभ्यता दूर-दूर तक द्वीपों और एटोल पर पहुंच गई थी और उनसे आबादी हुई थी, औपनिवेशिक काल तक लगभग सभी द्वीपों, आर्चिपेलॅगो और हिंद महासागर के एंटोल्स निर्जन थे। यद्यपि एशिया के तटीय राज्यों और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कई प्राचीन सभ्यताएं थीं, लेकिन मालदीव केंद्रीय भारतीय महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप समूह थे जहां एक प्राचीन सभ्यता विकसित हुई थी। मालदीव के जहाजों ने पास के तटों की यात्रा करने के लिए भारतीय मॉनसून चालू का इस्तेमाल किया। 1405 से 1433 तक एडमिरल झेंग ने हिंद महासागर के माध्यम से कई खजाने यात्राओं पर अंततः अंततः पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों तक पहुंचने वाले मिंग राजवंश के बड़े बेड़े का नेतृत्व किया। 1497 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप को गोल कर दिया और भारत के लिए पाल करने वाले पहले यूरोपीय और बाद में सुदूर पूर्व बन गए। यूरोपीय जहाजों, भारी तोप से सशस्त्र, जल्दी व्यापार पर हावी। पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य और बंदरगाहों पर किलों की स्थापना के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त की। अफ्रीका और एशिया के तट के साथ उनकी आधिकारिकता 17 वीं सदी के मध्य तक चली। बाद में, पुर्तगाली को अन्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा चुनौती दी गई थी डच ईस्ट इंडिया कंपनी (1602-1798) ने हिंद महासागर के पार ईस्ट के साथ व्यापार पर नियंत्रण की मांग की। फ्रांस और ब्रिटेन ने क्षेत्र के लिए व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की।
दक्षिणी भारत के चेरों, चोल और पांड्यों के साथ रोमन मिस्र और तमिल साम्राज्यों का व्यापारिक संबंध किस शताब्दी में अत्यधिक था ?
1 और 2 शताब्दी
1 और 2 शताब्दी के दौरान दक्षिणी भारत के चेरस, चोल और पांडिओं के रोमन मिस्र और तमिल राज्यों के बीच विकसित गहन व्यापार संबंध थे। ऊपर इंडोनेशियाई लोगों की तरह, पश्चिमी नाविकों ने समुद्र पार करने के लिए मानसून का इस्तेमाल किया एरिथ्रेअन सागर के पेरिप्लस के अज्ञात लेखक इस मार्ग का वर्णन करता है, साथ ही साथ वस्तुओं के अफ्रीका और भारत लगभग 1 सीई के किनारे पर विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ व्यापार किया गया था। इन व्यापारिक बस्तियों में लाल सागर तट पर मोसीलोन और ओपन थे। प्रशांत महासागर के विपरीत जहां पॉलिनेशिया की सभ्यता दूर-दूर तक द्वीपों और एटोल पर पहुंच गई थी और उनसे आबादी हुई थी, औपनिवेशिक काल तक लगभग सभी द्वीपों, आर्चिपेलॅगो और हिंद महासागर के एंटोल्स निर्जन थे। यद्यपि एशिया के तटीय राज्यों और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कई प्राचीन सभ्यताएं थीं, लेकिन मालदीव केंद्रीय भारतीय महासागर क्षेत्र में एकमात्र द्वीप समूह थे जहां एक प्राचीन सभ्यता विकसित हुई थी। मालदीव के जहाजों ने पास के तटों की यात्रा करने के लिए भारतीय मॉनसून चालू का इस्तेमाल किया। 1405 से 1433 तक एडमिरल झेंग ने हिंद महासागर के माध्यम से कई खजाने यात्राओं पर अंततः अंततः पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों तक पहुंचने वाले मिंग राजवंश के बड़े बेड़े का नेतृत्व किया। 1497 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा ने केप ऑफ गुड होप को गोल कर दिया और भारत के लिए पाल करने वाले पहले यूरोपीय और बाद में सुदूर पूर्व बन गए। यूरोपीय जहाजों, भारी तोप से सशस्त्र, जल्दी व्यापार पर हावी। पुर्तगाल ने महत्वपूर्ण जलडमरूमध्य और बंदरगाहों पर किलों की स्थापना के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त की। अफ्रीका और एशिया के तट के साथ उनकी आधिकारिकता 17 वीं सदी के मध्य तक चली। बाद में, पुर्तगाली को अन्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा चुनौती दी गई थी डच ईस्ट इंडिया कंपनी (1602-1798) ने हिंद महासागर के पार ईस्ट के साथ व्यापार पर नियंत्रण की मांग की। फ्रांस और ब्रिटेन ने क्षेत्र के लिए व्यापारिक कंपनियों की स्थापना की।
अफ्रीका और भारत विभिन्न वाणिज्यिक बंदरगाहों के साथ माल का व्यापार किस शताब्दी से किया करते थे ?
1 सीई
1.पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश) नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है । नंदराज के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे । तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य के प्रशासक के रूप में रहकर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए हो और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे हो और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। 2.पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है । कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं3.भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे। नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं। 4.राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे । जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है। 5.गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे।
राष्ट्रपाल ने किस क्षेत्र को अपनी राजधानी बनाई थी ?
पैठन अथवा प्रतिष्ठान
1.पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश) नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है । नंदराज के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे । तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य के प्रशासक के रूप में रहकर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए हो और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे हो और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। 2.पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है । कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं3.भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे। नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं। 4.राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे । जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है। 5.गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे।
पांडुका को पुराणों में क्या कहा गया है ?
सहल्य अथवा सहलिन
1.पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश) नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है । नंदराज के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे । तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य के प्रशासक के रूप में रहकर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए हो और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे हो और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। 2.पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है । कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं3.भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे। नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं। 4.राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे । जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है। 5.गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे।
पांडुगती के पिता कौन थे ?
आनंद राज
1.पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश) नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है । नंदराज के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे । तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य के प्रशासक के रूप में रहकर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए हो और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे हो और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। 2.पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है । कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं3.भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे। नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं। 4.राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे । जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है। 5.गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे।
नंदराज महापद्मनन्द के बड़े पुत्र कौन थे ?
पंडुक
1.पंडुक अथवा सहलिन (बंगाल का सेन वंश) नंदराज महापद्मनंद के जेष्ट पुत्र पंडुक जिनको पुराणों में सहल्य अथवा सहलिन कहा गया है । नंदराज के शासनकाल में उत्तर बिहार में स्थित वैशाली के कुमार थे । तथा उनकी मृत्यु के बाद भी उनके वंशज मगध साम्राज्य के प्रशासक के रूप में रहकर शासन करते रहे। इन के वंशज आगे चलकर पूरब दक्षिण की ओर बंगाल चले गए हो और अपने पूर्वज चक्रवर्ती सम्राट महापदम नंद के नाम पर सेन नामांतरण कर शासन करने लगे हो और उसी कुल से बंगाल के आज सूर्य राजा वीरसेन हुई जो मथुरा सुकेत स्थल एवं मंडी के सेन वंश के जनक बन गए जो 330 ईसवी पूर्व से 1290 ईस्वी पूर्व तक शासन किए। 2.पंडू गति अथवा सुकल्प (अयोध्या का देव वंश) आनंद राज के द्वितीय पुत्र को महाबोधि वंश में पंडुगति तथा पुराणों में संकल्प कहा गया है । कथासरित्सागर के अनुसार अयोध्या में नंद राज्य का सैन्य शिविर था जहां संकल्प एक कुशल प्रशासक एवं सेनानायक के रूप में रहकर उसकी व्यवस्था देखते थे तथा कौशल को अवध राज्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाई अवध राज्य आणि वह राज्य जहां किसी भी प्रकार की हिंसा या बलि पूजा नहीं होती हो जबकि इसके पूर्व यहां पूजा में पशुबलि अनिवार्य होने का विवरण प्राचीन ग्रंथों में मिलता है जिस को पूर्णतया समाप्त कराया और यही कारण है कि उन्हें सुकल्प तक कहा गया है यानी अच्छा रहने योग्य स्थान बनाने वाला इन्हीं के उत्तराधिकारी 185 ईस्वी पूर्व के बाद मूल्य वायु देव देव के रूप में हुए जिनके सिक्के अल्मोड़ा के पास से प्राप्त हुए हैं3.भूत पाल अथवा भूत नंदी (विदिशा का नंदी वंश) चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद के तृतीय पुत्र भूत पाल विदिशा के कुमार अथवा प्रकाशक थे। नंदराज के शासनकाल में उनकी पश्चिम दक्षिण के राज्यों के शासन प्रबंध को देखते थे। विदिशा के यह शासक कालांतर में पद्मावती एवं मथुरा के भी शासक रहे तथा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार की इतिहासकारों ने भूतनंदी के शासनकाल को 150 वर्ष पूर्व से मानते हैं। 4.राष्ट्रपाल (महाराष्ट्र का सातवाहन कलिंग का मेघ वाहन वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज के चौथे पुत्र राष्ट्रपाल थे। राष्ट्रपाल के कुशल प्रशासक एवं प्रतापी होने से इस राज्य का नाम राष्ट्रपाल के नाम पर महाराष्ट्र कहा जाने लगा यह गोदावरी नदी के उत्तर तट पर पैठन अथवा प्रतिष्ठान नामक नगर को अपनी राजधानी बनाई थी। राष्ट्रपाल द्वारा ही मैसूर के क्षेत्र, अश्मक राज्य एवं महाराष्ट्र के राज्यों की देखभाल प्रशासक के रूप में की जाती थी जिसकी केंद्रीय व्यवस्था नंदराज महापद्मनंद के हाथों में रहती थी। राष्ट्रपाल के पुत्र ही सातवाहन एवं मेघवाल थे । जो बाद में पूर्वी घाट उड़ीसा क्षेत्र पश्चिमी घाट महाराष्ट्र क्षेत्र के अलग-अलग शासक बन गए। ब्राहमणी ग्रंथों पुराणों में इन्हें आंध्र भृत्य कहा गया है। 5.गोविशाणक(उत्तराखंड का कुलिंद वंश) महाबोधि वंश के अनुसार नंदराज महापद्मनंद के पांचवे पुत्र गोविशाणक थे।
मथुरा सुकेत स्थल और मंडी की सेना का जनक किसे कहा जाता है ?
राजा वीरसेन
10-12 साल हिन्दू धर्म के अन्तर्गत रहते हुए बाबासाहब आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दु समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन न हुआ। उल्टे उन्हें निंदित किया गया और हिन्दू धर्म विनाशक तक कहा गया। उसेके बाद उन्होंने कहा था की, “हमने हिन्दू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयत्न और सत्याग्रह किए, परन्तु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है। ” हिन्दू समाज का यह कहना था कि “मनुष्य धर्म के लिए हैं” जबकि आम्बेडकर का मानना था कि "धर्म मनुष्य के लिए हैं। " आम्बेडकर ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं जिसमें मनुष्यता का कुछ भी मूल्य नहीं। जो अपने ही धर्म के अनुयायिओं (अछूतों को) को धर्म शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं मिलने देता ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं। आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा किसी भी प्रकार की दुश्मनी व हिन्दू धर्म के विनाश के लिए नहीं की थी बल्कि उन्होंने इसका फैसला कुछ मौलिक सिद्धांतों को लेकर किया जिनका हिन्दू धर्म में बिल्कुल तालमेल नहीं था। 13 अक्टूबर 1935 को नासिक के निकट येवला में एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की घोषणा की, "हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा! "उन्होंने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं में भी दोहराया। इस धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया।
मनष्य धर्म के लिए नहीं बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है यह किसका मानना था ?
आम्बेडकर
10-12 साल हिन्दू धर्म के अन्तर्गत रहते हुए बाबासाहब आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म तथा हिन्दु समाज को सुधारने, समता तथा सम्मान प्राप्त करने के लिए तमाम प्रयत्न किए, परन्तु सवर्ण हिन्दुओं का ह्रदय परिवर्तन न हुआ। उल्टे उन्हें निंदित किया गया और हिन्दू धर्म विनाशक तक कहा गया। उसेके बाद उन्होंने कहा था की, “हमने हिन्दू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयत्न और सत्याग्रह किए, परन्तु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिन्दू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है। ” हिन्दू समाज का यह कहना था कि “मनुष्य धर्म के लिए हैं” जबकि आम्बेडकर का मानना था कि "धर्म मनुष्य के लिए हैं। " आम्बेडकर ने कहा कि ऐसे धर्म का कोई मतलब नहीं जिसमें मनुष्यता का कुछ भी मूल्य नहीं। जो अपने ही धर्म के अनुयायिओं (अछूतों को) को धर्म शिक्षा प्राप्त नहीं करने देता, नौकरी करने में बाधा पहुँचाता है, बात-बात पर अपमानित करता है और यहाँ तक कि पानी तक नहीं मिलने देता ऐसे धर्म में रहने का कोई मतलब नहीं। आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म त्यागने की घोषणा किसी भी प्रकार की दुश्मनी व हिन्दू धर्म के विनाश के लिए नहीं की थी बल्कि उन्होंने इसका फैसला कुछ मौलिक सिद्धांतों को लेकर किया जिनका हिन्दू धर्म में बिल्कुल तालमेल नहीं था। 13 अक्टूबर 1935 को नासिक के निकट येवला में एक सम्मेलन में बोलते हुए आम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की घोषणा की, "हालांकि मैं एक अछूत हिन्दू के रूप में पैदा हुआ हूँ, लेकिन मैं एक हिन्दू के रूप में हरगिज नहीं मरूँगा! "उन्होंने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने अपनी इस बात को भारत भर में कई सार्वजनिक सभाओं में भी दोहराया। इस धर्म-परिवर्तन की घोषणा के बाद हैदराबाद के इस्लाम धर्म के निज़ाम से लेकर कई ईसाई मिशनरियों ने उन्हें करोड़ों रुपये का प्रलोभन भी दिया पर उन्होनें सभी को ठुकरा दिया।
मैं एक अछूत हिंदू के रूप में पैदा हुआ था, मैं एक हिंदू के रूप में कभी नहीं मरूंगा, अंबेडकर ने यह घोषणा कब की थी ?
13 अक्टूबर 1935
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ। लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए। सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, मौल्वी अहमदुल्ला शाह्, राजा बेनी माधव सिंह्, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। 1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं। सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं।
भारतीय संविधान कब लागू हुआ था?
1950
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ। लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए। सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, मौल्वी अहमदुल्ला शाह्, राजा बेनी माधव सिंह्, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। 1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं। सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं।
उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री कौन थे ?
गोविंद वल्लभ पंत
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ। लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए। सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, मौल्वी अहमदुल्ला शाह्, राजा बेनी माधव सिंह्, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। 1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं। सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं।
किन दो पहाड़ी क्षेत्रों को मिलाकर उत्तरांचल राज्य बनाया गया था?
गढ़वाल और कुमाऊँ
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ। लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए। सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, मौल्वी अहमदुल्ला शाह्, राजा बेनी माधव सिंह्, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। 1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं। सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं।
झांसी की रानी कौन थी?
लक्ष्मीबाई
18वीं शताब्दी में मुग़लों के पतन के साथ ही इस मिश्रित संस्कृति का केन्द्र दिल्ली से लखनऊ चला गया, जो अवध के नवाब के अन्तर्गत था और जहाँ साम्प्रदायिक सद्भाव के वातावरण में कला, साहित्य, संगीत और काव्य का उत्कर्ष हुआ। लगभग 75 वर्ष की अवधि में उत्तर प्रदेश के क्षेत्र का ईस्ट इण्डिया कम्पनी (ब्रिटिश व्यापारिक कम्पनी) ने धीरे-धीरे अधिग्रहण किया। विभिन्न उत्तर भारतीय वंशों 1775, 1798 और 1801 में नवाबों, 1803 में सिंधिया और 1816 में गोरखों से छीने गए प्रदेशों को पहले बंगाल प्रेज़िडेन्सी के अन्तर्गत रखा गया, लेकिन 1833 में इन्हें अलग करके पश्चिमोत्तर प्रान्त (आरम्भ में आगरा प्रेज़िडेन्सी कहलाता था) गठित किया गया। 1856 ई. में कम्पनी ने अवध पर अधिकार कर लिया और आगरा एवं अवध संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के समरूप) के नाम से इसे 1877 ई. में पश्चिमोत्तर प्रान्त में मिला लिया गया। 1902 ई. में इसका नाम बदलकर संयुक्त प्रान्त कर दिया गया। 1857-1859 ई. के बीच ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध हुआ विद्रोह मुख्यत: पश्चिमोत्तर प्रान्त तक सीमित था। 10 मई 1857 ई. को मेरठ में सैनिकों के बीच भड़का विद्रोह कुछ ही महीनों में 25 से भी अधिक शहरों में फैल गया। 18 57 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। उन्होंने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए। 1858 ई. में विद्रोह के दमन के बाद पश्चिमोत्तर और शेष ब्रिटिश भारत का प्रशासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश ताज को हस्तान्तरित कर दिया गया। 1880 ई. के उत्तरार्द्ध में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ संयुक्त प्रान्त स्वतंत्रता आन्दोलन में अग्रणी रहा। प्रदेश ने भारत को मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवादी राजनीतिक नेता दिए। 1922 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए किया गया महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन पूरे संयुक्त प्रान्त में फैल गया, लेकिन चौरी चौरा गाँव (प्रान्त के पूर्वी भाग में) में हुई हिंसा के कारण महात्मा गांधी ने अस्थायी तौर पर आन्दोलन को रोक दिया। संयुक्त प्रान्त मुस्लिम लीग की राजनीति का भी केन्द्र रहा। ब्रिटिश काल के दौरान रेलवे, नहर और प्रान्त के भीतर ही संचार के साधनों का व्यापक विकास हुआ। अंग्रेज़ों ने यहाँ आधुनिक शिक्षा को भी बढ़ावा दिया और यहाँ पर लखनऊ विश्वविद्यालय (1921 में स्थापित) जैसे विश्वविद्यालय व कई महाविद्यालय स्थापित किए। सन 1857 में अंग्रेजी फौज के भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह एक साल तक चला और अधिकतर उत्तर भारत में फ़ैल गया। इसे भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम कहा गया। इस विद्रोह का प्रारम्भ मेरठ शहर में हुआ। इस का कारण अंग्रेज़ों द्वारा गाय और सुअर की चर्बी से युक्त कारतूस देना बताया गया। इस संग्राम का एक प्रमुख कारण डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति भी थी। यह लड़ाई मुख्यतः दिल्ली,लखनऊ,कानपुर,झाँसी और बरेली में लड़ी गयी। इस लड़ाई में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम हज़रत महल, बख्त खान, नाना साहेब, मौल्वी अहमदुल्ला शाह्, राजा बेनी माधव सिंह्, अजीमुल्लाह खान और अनेक देशभक्तों ने भाग लिया। सन १९०२ में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटेड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन् १९२० में प्रदेश की राजधानी को प्रयागराज से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय प्रयागराज ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी। 1947 में संयुक्त प्रान्त नव स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की एक प्रशासनिक इकाई बना। दो साल बाद इसकी सीमा के अन्तर्गत स्थित, टिहरी गढ़वाल और रामपुर के स्वायत्त राज्यों को संयुक्त प्रान्त में शामिल कर लिया गया। 1950 में नए संविधान के लागू होने के साथ ही 24 जनवरी सन 1950 को इस संयुक्त प्रान्त का नाम उत्तर प्रदेश रखा गया और यह भारतीय संघ का राज्य बना। स्वतंत्रता के बाद से भारत में इस राज्य की प्रमुख भूमिका रही है। इसने देश को जवाहर लाल नेहरू और उनकी पुत्री इंदिरा गांधी सहित कई प्रधानमंत्री, सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक आचार्य नरेन्द्र देव, जैसे प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी (अल्पसंख्यक) दलों के नेता और भारतीय जनसंघ, बाद में भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता दिए हैं। राज्य की राजनीति, हालाँकि विभाजनकारी रही है और कम ही मुख्यमंत्रियों ने पाँच वर्ष की अवधि पूरी की है। गोविंद वल्लभ पंत इस प्रदेश के प्रथम मुख्य मन्त्री बने। अक्टूबर १९६३ में सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश एवम भारत की प्रथम महिला मुख्य मन्त्री बनीं। सन २००० में पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र स्थित गढ़वाल और कुमाऊँ मण्डल को मिला कर एक नये राज्य उत्तरांचल का गठन किया गया जिसका नाम बाद में बदल कर 2007 में उत्तराखण्ड कर दिया गया है। उत्तर प्रदेश के गठन के तुरन्त बाद उत्तराखण्ड क्षेत्र (गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र द्वारा निर्मित) में समस्याएँ उठ खड़ी हुईं।
लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना किस वर्ष की गई थी ?
1921
1947 में स्वतन्त्रता मिलने के बाद ब्रिटिश भारतीय सेना को नये बने राष्ट्र भारत और इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की सेवा करने के लिये 2 भागों में बाँट दिया गया। अधिकतर इकाइयों को भारत के पास रखा गया। चार गोरखा सैन्य दलों को ब्रिटिश सेना में स्थानान्तरित किया गया जबकि शेष को भारत के लिए भेजा गया। जैसा कि ज्ञात है, भारतीय सेना में ब्रिटिश भारतीय सेना से व्युत्पन्न हुयी है तो इसकी संरचना, वर्दी और परम्पराओं को अनिवार्य रूप से विरासत में ब्रिटिश से लिया गया हैं|स्वतन्त्रता के लगभग तुरन्त बाद से ही भारत और पाकिस्तान के मध्य तनाव पैदा हो गया था और दोनों देशों के बीच पहले तीन पूर्ण पैमाने पर हुये युद्ध के बाद राजसी राज्य कश्मीर का विभाजन कर दिया गय। कश्मीर के महाराजा की भारत या पाकिस्तान में से किसी भी राष्ट्र के साथ विलय की अनिच्छा के बाद पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के कुछ हिस्सों मे आदिवासी आक्रमण प्रायोजित करवाया गया। भारत द्वारा आरोपित पुरुषों को भी नियमित रूप से पाकिस्तान की सेना मे शामिल किया गया। जल्द ही पाकिस्तान ने अपने दलों को सभी राज्यों को अपने में संलग्न करने के लिये भेजा। महाराजा हरि सिंह ने भारत और लॉर्ड माउंटबेटन से अपनी मदद करने की याचना की, पर उनको कहा गया कि भारत के पास उनकी मदद करने के लिये कोई कारण नही है। इस पर उन्होने कश्मीर के विलय के एकतरफा सन्धिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसका निर्णय ब्रिटिश सरकार द्वारा लिया गया पर पाकिस्तान को यह सन्धि कभी भी स्वीकार नहीं हुई। इस सन्धि के तुरन्त बाद ही भारतीय सेना को आक्रमणकारियों से मुकाबला करने के लिये श्रीनगर भेजा गया। इस दल में जनरल थिम्मैया भी शामिल थे जिन्होने इस कार्यवाही में काफी प्रसिद्धि हासिल की और बाद में भारतीय सेना के प्रमुख बने। पूरे राज्य में एक गहन युद्ध छिड़ गया और पुराने साथी आपस मे लड़ रहे थे। दोनो पक्षों में कुछ को राज्यवार बढत मिली तो साथ ही साथ महत्वपूर्ण नुकसान भी हुआ। 1948 के अन्त में नियन्त्रण रेखा पर लड़ रहे सैनिकों में असहज शान्ति हो गई जिसको संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। पाकिस्तान और भा‍रत के मध्य कश्मीर में उत्पन्न हुआ तनाव कभी भी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ है। वर्तमान में भारतीय सेना की एक टुकड़ी संयुक्त राष्ट्र की सहायता के लिये समर्पित रहती है। भारतीय सेना द्वारा निरन्तर कठिन कार्यों में भाग लेने की प्रतिबद्धताओं की हमेशा प्रशंसा की गई है। भारतीय सेना ने संयुक्त राष्ट्र के कई शान्ति स्थापित करने की कार्यवाहियों में भाग लिया गया है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: अंगोला कम्बोडिया साइप्रस लोकतांत्रिक गणराज्य कांगो, अल साल्वाडोर, नामीबिया, लेबनान, लाइबेरिया, मोजाम्बिक, रवाण्डा, सोमालिया, श्रीलंका और वियतनाम| भारतीय सेना ने कोरिया में हुयी लड़ाई के दौरान घायलों और बीमारों को सुरक्षित लाने के लिये भी अपनी अर्द्ध-सैनिकों की इकाई प्रदान की थी। भारत के विभाजन के उपरान्त राजसी राज्य हैदराबाद, जो कि निजा़म द्वारा शासित था, ने स्वतन्त्र राज्य के तौर रहना पसन्द किया। निजा़म ने हैदराबाद को भारत में मिलाने पर अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। भारत सरकार और हैदराबाद के निज़ाम के बीच पैदा हुई अनिर्णायक स्थिति को समाप्त करने हेतु भारत के उप-प्रधानमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा 12 सितम्बर 1948 को भारतीय टुकड़ियों को हैदराबाद की सुरक्षा करने का आदेश दिया। 5 दिनों की गहन लड़ाई के बाद वायु सेना के समर्थन से भारतीय सेना ने हैदराबाद की सेना को परास्त कर दिया। उसी दिन हैदराबाद को भारत गणराज्य का भाग घोषित कर दिया गया। पोलो कार्यवाही के अगुआ मेजर जनरल जॉयन्तो नाथ चौधरी को कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिये हैदराबाद का सैन्य शाशक (1948-1949) घोषित किया गया। इन्हें भी देखें: गोवा मुक्ति संग्रामब्रिटिश और फ़्रांस द्वारा अपने सभी औपनिवेशिक अधिकारों को समाप्त करने के बाद भी भारतीय उपमहाद्वीप, गोवा, दमन और दीव में पुर्तगालियों का शासन रहा। पुर्तगालियों द्वारा बारबार बातचीत को अस्वीकार कर देने पर नई दिल्ली द्वारा 12 दिसम्बर 1961 को ऑपरेशन विजय की घोषणा की और अपनी सेना के एक छोटे से दल को पुर्तगाली क्षेत्रों पर आक्रमण करने के आदेश दिए। 26 घण्टे चले युद्ध के बाद गोवा और दमन और दीव को सुरक्षित स्वतन्त्र करा लिया गया और उनको भारत का अंग घोषित कर दिया गया। 1959 से भारत प्रगत नीति का पालन करना शुरु कर दिया। 'प्रगत नीति' के अन्तर्गत भारतीय गश्त दलों ने चीन द्वारा भारतीय सीमा के काफी अन्दर तक हथियाई गई चौकियों पर हमला बोल कर उन्हें फिर कब्जे में लिया। भारत के मैक-महोन रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिए जाने पर जोर डालने के कारण भारत और चीन की सेनाओं के बीच छोटे स्तर पर संघर्ष छिड़ गया। बहरहाल, भारत और चीन के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के कारण विवाद ने अधिक तूल नहीं पकड़ा। युद्ध का कारण अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश की क्षेत्रों की सम्प्रभुता को लेकर था। अक्साई चिन में, जिसे भारत द्वारा कश्मीर और चीन द्वारा झिंजियांग का हिस्सा का दावा किया जाता रहा है, एक महत्वपूर्ण सड़क लिंक है जोकि तिब्बत और चीनी क्षेत्रों झिंजियांग को जोड़ती है। चीन के तिब्बत में भारत की भागीदारी के संदेह के चलते दोनों देशों के बीच संघर्ष की संभावनाएँ और बढ़ गई। हैदराबाद व गोवा में अपने सैन्य अभियानों की सफलता से उत्साहित भारत ने चीन के साथ सीमा विवाद में आक्रामक रुख ले लिया। 1962 में, भारतीय सेना को भूटान और अरुणाचल प्रदेश के बीच की सीमा के निकट और विवादित मैकमहोन रेखा के लगभग स्थित 5 किमी उत्तर में स्थित थाग ला रिज तक आगे बढ़ने का आदेश दिया गया।
ब्रिटिश भारतीय सेना को कितने भागों में विभाजित किया गया था?
2 भागों
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